2018 में मोदी सरकार द्वारा लाए एक क़ानून के तहत गंगा पर बनी जलविद्युत परियोजनाओं को अलग-अलग सीज़न में 20 से 30 फीसदी पानी छोड़ने की बात कही गई थी. दस्तावेज़ दिखाते हैं कि जिस समिति ने ज़्यादा पानी छोड़ने की सिफारिश की थी, उसकी रिपोर्ट केंद्रीय मंत्री की सहमति के बावजूद लागू नहीं की गई.
इलाहाबाद में गंगा. (फाइल फोटो: पीटीआई)
नई दिल्ली: उत्तराखंड के चमोली जिले की ऋषिगंगा घाटी में ग्लेशियर टूटने से अचानक आई विकराल बाढ़ के बाद एक बार फिर से पनबिजली या जलविद्युत परियोजनाओं पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं.
विशेषज्ञों ने पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील इन हिमालयी क्षेत्रों में ऐसे प्रोजेक्ट्स के निर्माण पर रोक लगाने की मांग की है. इसके साथ ही इन परियोजनाओं के तहत बहुत अधिक मात्रा में पानी रोके जाने के चलते गंगा नदी के स्वास्थ्य पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है.
पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि यदि सरकार नदी में उचित न्यूनतम प्रवाह, जिसे पर्यावरणीय प्रवाह कहते हैं, सुनिश्चित नहीं करती है तो नदी के खत्म होने में समय नहीं लगेगा और हमें ऐसी ही अन्य आपदाएं देखनी पड़ सकती हैं.
वैसे तो मोदी सरकार ने व्यापक मांग और कई सालों के इंतजार के बाद अक्टूबर 2018 में पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) को लेकर एक कानून बनाया था. इसके तहत गंगा की ऊपरी धाराओं यानी देवप्रयाग से हरिद्वार तक अलग-अलग महीनों में 20 से 30 फीसदी तक पानी छोड़ने का प्रावधान किया गया था.
हालांकि इसे लेकर पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों ने कहा है कि सिर्फ इतना पानी छोड़ना पर्याप्त नहीं है और यदि गंगा को असल मायने में पुनर्जीवित करना है तो इन परियोजनाओं द्वारा और अधिक पानी छोड़ने का प्रावधान किया जाना चाहिए.
इसी संबंध में द वायर द्वारा प्राप्त किए गए विभिन्न आधिकारिक दस्तावेज दर्शाते हैं कि गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह पर नोटिफिकेशन जारी करने से पहले सरकार ने पर्याप्त विचार-विमर्श नहीं किया, संबंधित मंत्रालयों या विभागों या निकायों के बीच मशविरा नहीं हुआ और जिस समिति ने नदी में ज्यादा पानी छोड़ने की सिफारिश की थी, उसकी रिपोर्ट को केंद्रीय मंत्री द्वारा सहमति जताए जाने के बावजूद लागू नहीं किया गया.
इतनी ही नहीं, सरकार ने जिस रिपोर्ट के आधार ये कानून बनाए हैं उसमें किसी भी प्राथमिक (नए) आंकड़ों का आकलन नहीं है, बल्कि ई-फ्लो पर पूर्व में किए गए विभिन्न अध्ययनों का विश्लेषण करके इसकी सिफारिश कर दी गई थी.
क्या है पर्यावरणीय प्रवाह
यदि साधारण शब्दों में कहें तो, किसी भी नदी के विकास के लिए जरूरी न्यूनतम प्रवाह को पर्यावरणीय प्रवाह कहा जाता है. इसका मतलब ये है कि नदी के स्वास्थ्य और इसके जलीय जीवों जैसे कि मछलियां, घड़ियाल, डॉलफिन इत्यादि के जीने के लिए कम से कम इतना पानी होना चाहिए.
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) (2003) की परिभाषा के मुताबिक किसी नदी, वेटलैंड या तटीय क्षेत्रों के इकोसिस्टम को बनाए रखने और उनके विकास में योगदान के लिए जितना पानी दिया जाना चाहिए, उसे पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो कहते हैं.
इस तरह का प्रवाह नदी की अविरलता सुनिश्चित करता है. इसलिए एक समय भारत के जल मंत्रालय ने ‘अविरल से निर्मल गंगा’ का सूत्रवाक्य दिया था.
नदी के जानकारों का कहना है कि सरकारों को निर्मलता पर सारा ध्यान देने और इसका खूब प्रचार-प्रसार करने से पहले अविरलता पर ध्यान देना चाहिए. यदि नदी अविरल हो गई तो निर्मलता को जल्द प्राप्त किया जा सकेगा.
जलविद्युत परियोजनाओं की भरमार के बाद पिछले कई सालों से भारत की नदियों में पर्याप्त पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की मांग उठती रही है. इसे लेकर 2006 से 2018 के बीच विभिन्न स्तरों पर कम से कम 12 रिपोर्ट तैयार की गई, लेकिन इनके बीच सर्वसम्मति नहीं बन पाई और ई-फ्लो की मात्रा को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय रही.
इस मामले में अंतिम निर्णय लेने और गंगा के पुनर्जीवन एवं इसके विकास के लिए जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय (अब जल शक्ति मंत्रालय) ने अप्रैल 2014 में एक समिति का गठन किया था, जिसके सदस्य पर्यावरण मंत्रालय के तत्कालीन अपर सचिव शशि शेखर, जल मंत्रालय के तत्कालीन अपर सचिव डॉ. अमरजीत सिंह और गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना पर सात आईआईटी द्वारा मिलकर तैयार की गई रिपोर्ट के प्रमुख लेखक और इस समूह के संयोजक प्रोफेसर विनोद तारे थे.
समिति की कुल पांच बैठकें हुईं और इसने देश-दुनिया के तमाम विशेषज्ञों एवं विभागों से साथ विचार-विमर्श किया. करीब एक साल बाद 2015 में इसने अपनी रिपोर्ट सौंप दी, जिसमें सिफारिश की गई कि हिमालयी गंगा के लिए दिसंबर-मार्च के बीच 42 से 83 फीसदी, अक्टूबर और मई के बीच 37 से 71 फीसदी और जून से अक्टूबर के बीच 35 से 59 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह होना चाहिए.
हालांकि इस सिफारिश को दो सदस्यों ने सहमति प्रदान की और एक सदस्य डॉ. अमरजीत सिंह ने असहमति व्यक्त की थी. सिंह ने दलील दी कि चूंकि अन्य रिपोर्ट की तुलना में इस समिति की रिपोर्ट में पर्यावरणीय प्रवाह में काफी अंतर था, इसलिए उन्होंने डिसेंट नोट दिया. उन्होंने रिपोर्ट की तथ्यात्मक पहलुओं पर अपनी राय व्यक्त नहीं की. आगे चल कर शेखर के रिटायर होने के बाद सिंह को मंत्रालय का सचिव बनाया गया था.
खास बात ये है कि इस समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 17.11.2016 को तत्कालीन जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती के सामने पेश किया, जिन्होंने इस पर सहमति जताई और इसे स्वीकार किया था.
लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया गया और ऐसा करने के पीछे कोई वजह नहीं बताई गई है.
रिकॉर्ड से पता चलता है कि पांच अप्रैल 2017 को तत्कालीन संयुक्त सचिव संजय कुंडु (नीति एवं योजना) की अगुवाई में एक बैठक हुई थी, जिसमें इस समिति के निर्णयों को पलटने का फैसला किया गया. लेकिन ऐसा करते हुए कोई पुख्ता वजह नहीं बताई गई.
इस मीटिंग में केंद्रीय जल आयोग के हाईड्रोलॉजी विभाग के निदेशक एनएन राय और सीनियर ज्वाइंट कमिश्नर एसके शर्मा शामिल थे. बैठक के मिनट्स के मुताबिक संयुक्त सचिव ने कहा कि कई नई चीजें सामने आई हैं, इसलिए इस दिशा में और अधिक कार्य करने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘ई-फ्लो अर्ध न्यायिक और तकनीकि मामला है और इस मसले पर पांच सदस्यीय वाली बड़ी समिति द्वारा विचार किया जाना चाहिए, जिसमें हाईड्रोलॉजी, पर्यावरण, हाईड्रोपावर और कृषि विभाग के लोग शामिल हों.’ मिनट्स में इस बात का कोई विवरण नहीं है कि किस आधार पर इस सिफारिश को स्वीकार नहीं किया जा सकता है और ये आकलन सही है या नहीं.
जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण के पूर्व सचिव शशि शेखर अपनी रिपोर्ट लागू नहीं होने को लेकर कहते हैं कि ये एक ऐसा विषय है जिसे सभी मंत्रालय, खासकर विद्युत मंत्रालय, स्वीकार नहीं कर पाते हैं. जल मंत्रालय पर्यावरणीय प्रवाह को गंगा को पुनर्जीवित करने के रूप में देखता है, लेकिन विद्युत मंत्रालय का मानना है कि यदि हम इतना ई-फ्लो छोड़ेंगे तो हाईड्रोपावर प्रोजेक्ट बंद हो जाएंगे.
उन्होंने कहा, ‘यदि सरकार वाकई इसे लेकर प्रतिबद्ध है तो उसे सभी विभागों को एक मंच पर लाना होगा. आलम ये है कि मंत्री द्वारा स्वीकार करने के बाद भी इसे लागू नहीं किया जा सका. ऐसा लगता है कि मंत्रालय से मेरे निकलने के बाद मेरे बाद के लोगों ने इस पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया.’
शेखर ने आगे कहा, ‘नदी में कम से कम इतना पानी हो कि हम कह सकें ‘नदी में जान’ है. हमारा इंजीनियरिंग समुदाय इसे स्वीकार नहीं कर पाता है. उनका मानना है कि नदी की एक-एक बूंद से पैसा बना लो, लेकिन डैम में पानी रोककर बर्बाद ही किया जाता है. इस संबंध में निर्णय लेने के लिए सबसे पहले इकोलॉजी विभाग के विशेषज्ञ को शामिल किया जाना चाहिए. पानी पर सिर्फ मनुष्य ही नहीं, सभी जीव-जंतुओं का हक है.’
नई समिति, पुरानी तकनीकी, लेकिन सिफारिशों में बड़ा अंतर
12 जनवरी 2017 को तत्कालीन जल मंत्री उमा भारती के सामने हिमालयी गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह पर एक प्रजेंटेशन देने के बाद एक तीन सदस्यीय समिति बनाई गई, जिसमें राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की के वैज्ञानिक डॉ. शरद जैन, आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर डॉ. एके गोसैन और केंद्रीय जल आयोग में हाईड्रोलॉजी के निदेशक एनएन राय शामिल थे.
इसने पर्यावरणीय प्रवाह को लागू करने को लेकर एक पॉलिसी पेपर तैयार किया, जिसमें ये सिफारिश की गई कि नवंबर से मार्च के बीच (जिस समय नदी में काफी कम पानी रहता है) 20 फीसदी, अक्टूबर, अप्रैल और मई (जिस समय नदी में पानी का स्तर नॉर्मल होता है) के लिए 25 फीसदी और जून से सितंबर (बारिश का सीजन) के दौरान 30 फीसदी ई-फ्लो होना चाहिए.
इसका मतलब ये है कि हर महीने तमाम जल विद्युत परियोजनाओं तक जितना पानी पहुंचता है, उसमें से इतने फीसदी पानी उन्हें छोड़ना है.
उमा भारती के जाने के बाद जल संसाधन मंत्री बने नितिन गडकरी की अगुवाई में सरकार ने इसी रिपोर्ट के आधार पर मौजूदा ई-फ्लो की घोषणा की थी.
महत्वपूर्ण बात ये है कि इस समिति की रिपोर्ट में ई-फ्लो का कोई नया आकलन पेश नहीं किया गया, बल्कि पूर्व में किए गए विभिन्न अध्ययनों के आधार पर इसकी सिफारिश की गई थी. यह मुख्य रूप से साल 2012 में आई भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट पर आधारित है.
खास बात ये है कि पर्यावरणीय प्रवाह का आकलन करने के लिए इस पेपर में जिस तरीके का सुझाव दिया गया है, वही तरीका पूर्व की कई समितियों ने भी अपनाया था जिसमें से ‘सात आईआईटी के समूहों की रिपोर्ट’ भी शामिल है.
इसमें बताया गया है कि ई-फ्लो का आकलन करने के लिए ‘Hydraulic cum Habitat simulation method’ अपनाया जाना चाहिए. इसका मतलब है कि हिमालयों में मछलियों की एक प्रजाति, गोल्डन महसीर, को जीने के लिए जितना पानी चाहिए, उस आधार पर पर्यावरणीय प्रवाह का आकलन होना चाहिए.
इसके लिए सात आईआईटी के समूहों ने अपनी रिपोर्ट में अलग-अलग सीजन (सूखा, सामान्य एवं बारिश) के लिए पानी की अलग-अलग गहराई क्रमश: 0.5-0.8-3.41 मीटर होने की जरूरत बताई थी.
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने भी अपनी रिपोर्ट में 0.5-0.8-1.8 मीटर की गहराई को स्वीकार किया था. यहां स्पष्ट है कि आईआईटी और सीडब्ल्यूसी ने दो सीजन के लिए पानी गहराई पर स्वीकार्यता जताई है.
लेकिन इसके बाद सिफारिश की गई पर्यावरणीय प्रवाह के आकड़ों में बड़ा अंतर दिखाई देता है. हालांकि पॉलिसी पेपर में इसके पीछे की वजह नहीं बताई गई.
समिति के सदस्य और सीडब्ल्यूसी में निदेशक एनएन राय ने कहा, ‘ये निष्कर्ष किसी एक स्टडी के आधार पर नहीं है, कई अन्य रिपोर्ट में भी यही रिजल्ट आया था. आईआईटी समूह ने गहराई बढ़ाकर आकलन किया था, जो गलत था. अगर ये रिपोर्ट स्वीकार करने लायक होती तो सरकार जरूर इसे स्वीकार करती.’
ये पूछे जाने पर की पॉलिसी पेपर में किसी डेटा का कोई आकलन क्यों नहीं है, राय ने कहा, ‘मंत्रालय और मंत्री के सामने हमारे द्वारा आंकड़े पेश किए गए थे, इसे रिपोर्ट में शामिल नहीं किया गया. पॉलिसी पेपर में ये चीजें शामिल नहीं की जाती हैं.’
दस्तावेजों से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी), जिसकी प्रमुख जिम्मेदारी है कि वो गंगा एवं इसकी सहायक नदियों का इकोलॉजिकल फ्लो सुनिश्चित करे, ने इस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था बारिश के सीजन में जून से सितंबर के बीच जो 30 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह रखने की सिफारिश की गई है, वो इस सीजन के दौरान किए गए समूचे आकलन पर आधारित होना चाहिए.
एनएमसीजी ने कहा कि इस समय के दौरान आने वाली बाढ़ जैसी परिस्थितियों को देखते हुए कम से कम इतना पानी जरूर छोड़ा जाना चाहिए, ताकि नदी सुचारू रूप से चल सके. हालांकि मंत्रालय द्वारा इस संबंध में कोई नया अध्ययन नहीं कराया गया.
हरिद्वार से उन्नाव तक के लिए घोषित पर्वारणीय प्रवाह
गंगा की ऊपरी धाराओं (देवप्रयाग से हरिद्वारा) पर बने जलविद्युत परियोजनाओं के लिए ई-फ्लो मानक तैयार करने के दौरान ही 13 जुलाई 2017 को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने अपने एक आदेश में कहा कि एक समिति बनाकर हरिद्वारा से उन्नाव के बीच में बने सिंचाई बराजों द्वारा पानी छोड़ने पर कानून बनाया जाए.
इसे लेकर सीडब्ल्यूसी के चेयरमैन की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई, जिसने भीमगौड़ा बराज, हरिद्वार, बिजनौर और नरौरा बैराज में आ रहे पानी एवं इससे छोड़े जा रहे पानी का आकलन कर अपनी रिपोर्ट पेश की.
समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि हरिद्वार और बिजनौर बैराज से पहले ही पर्याप्त पानी छोड़ा जा रहा है, जबकि इन्हीं बैराजों के खिलाफ एनजीटी में याचिका दायर की गई थी. वहीं नरौरा एवं भीमगौड़ा के लिए अलग मानक तय किए गए.
सरकार ने इन सिफारिशों को स्वीकार किया और इसे गंगा नदी के निचले क्षेत्र का पर्यावरणीय प्रवाह घोषित कर दिया.
रिपोर्ट के मुताबिक गैर मानसून सीजन में अक्टूबर से मई के बीच भीमगौड़ा (हरिद्वार) बैराज से 36 घन मीटर प्रति सेकेंड, बिजनौर बैराज से 24 घन मीटर प्रति सेकेंड, नरौरा बैराज से 24 घन मीटर प्रति सेकेंड और कानपुर बैराज से 24 घन मीटर प्रति सेकेंड पानी छोड़ा जाना चाहिए.
वहीं मानसून सीजन में जून से सितंबर के बीच क्रमश: 57, 48, 48 और 48 घन मीटर प्रति सेकेंड पानी छोड़ने का प्रावधान किया गया.
विशेषज्ञों का आरोप है कि चूंकि मंत्रालय खुद इन नियमों की मॉनिटरिंग नहीं कर रही है और ये प्रोजेक्ट अपने हिसाब से आंकड़े भेजते हैं, इसलिए पूरी संभावना है कि इसका पालन नहीं किया जाता है.
सात आईआईटी द्वारा गंगा पर तैयार की गई रिपोर्ट के सदस्य रहे भरत झुनझुनवाला ने कहा कि ये ई-फ्लो साल भर के प्रवाह का छह फीसदी भी नहीं है. उन्होंने कहा, ‘नदी को बनाए रखने के लिए ये पर्यावरणीय प्रवाह बहुत ही ज्यादा अपर्याप्त हैं. कई अन्य रिपोर्टों में 50 फीसदी से अधिक तक का पर्यावरणीय प्रवाह की सिफारिश की गई है.’
झुनझुनवाला ने कहा, ‘उन्होंने मेथडोलॉजी तो आईआईटी समूह जैसी ही बताई, लेकिन इसमें कोई परिवर्तन किए बिना अंत में कह दिया कि 50 फीसदी की जगह 20 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह पर्याप्त है. ऐसा कहने के पीछे कोई आधार नहीं है. ये वही बात हुई की समिति ने कहा कि चूल्हे पर रोटी बनाएंगे, लेकिन धूप में सेंककर दे दिया.’
क्या कहती हैं अन्य रिपोर्ट
साल 2006 में इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में कहा था कि गंगा ‘सी’ श्रेणी की नदी है और यदि इसे ‘ए’ श्रेणी की नदी बनाना है कि तो इसमें पर्यावरणीय प्रवाह 67 फीसदी होना चाहिए.
इसी तरह साल 2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा कि उत्तर प्रदेश के सिंचाई बैराजों के लिए 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
वहीं 2012 में द वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने कछला घाट मैदानी इलाकों और और बिठूर में में 45-47 प्रतिशत पर्यावरणीय प्रवाह की सिफारिश की थी.
इसी तरह जलविद्युत परियोजनाओं के संबंध में भारतीय वन्यजीव संस्थान ने गंगा के ऊपरी क्षेत्रों में अलकनंदा-भागीरथी बेसिन के लिए 20-30 फीसदी ई-फ्लो की सिफारिश की थी.
साल 2012 में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड में कौडियाला के पहाड़ों में 72 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह की सिफारिश की थी. इस क्षेत्र में कई सारे हाईड्रोपावर प्रोजेक्ट्स आते हैं.
मार्च 2013 में एक अंतर-मंत्रालयी समूह ने पनबिजली परियोजनाओं के लिए 20-30 फीसदी ई-फ्लो की सिफारिश की थी.
वही दिसंबर 2014 में सात आईआईटी ने मिलकर अलग-अलग जगहों के लिए अलग-अलग पर्यावरणीय प्रवाह की सिफारिश की, जिसमें से एक पहाड़ों में रानारी पर मानसून के दौरान 47 फीसदी फ्लो रखने की सिफारिश की गई और यह हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स पर लागू होता है.
आगे चलकर मार्च 2015 में जल मंत्रालय ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें इस सिफारिश पर सहमति जताई गई. साल 2018 में एनएमसीजी ने भी एक रिपोर्ट जारी की, जिसने इन दोनों रिपोर्ट पर सहमति जताई थी.
कुल मिलाकर अगर देखें, तो पनबिजली परियोजनाओं के लिए चार रिपोर्टों में करीब 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई है. वहीं तीन रिपोर्ट ऐसी हैं जिसमें 20-30 फीसदी ई-फ्लो रखने की बात की गई है. जल शक्ति मंत्रालय ने इसी सिफारिश को लागू करना जरूरी समझा.
अक्टूबर 2018 में आई सरकार के इस ई-फ्लो नोटिफिकेशन को अपर्याप्त बताते हुए इसे उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है.
इसे लेकर पिछले महीने 11 जनवरी 2021 को न्यायालय ने याचिकाकर्ता भरत झुनझुनवाला को निर्देश दिया कि वे अपनी बातों को शामिल करते हुए जल शक्ति मंत्रालय के सामने एक प्रजेंटेंशन पेश करें और मंत्रालय से कहा गया वे इनकी बातों पर विचार कर न्यायालय में रिपोर्ट दायर करें.